राजनांदगांव: जंगलों के गांव अब हो रहे रोशन, जहां कभी सायकल नहीं पहुंचती थी, वहां अब दौड़ रही कारें

15 साल पहले जहां ना सड़क थी, ना स्कूल, ना बिजली, अब बच्चों की किलकारी सुनाई देती है — एक जिद, एक जुनून ने बदली तस्वीर

राजनांदगांव।”कभी झिरिया का पानी पीते थे, अब नल से पानी आता है। पहले चिमनी की रोशनी में जीते थे, अब बिजली से घर रोशन हैं। जहां कभी पहुंचने के लिए सायकल भी हार मान जाती थी, वहां अब कारें दौड़ रही हैं।”
ये बदलाव रातोंरात नहीं हुआ। इसके पीछे है 15-16 सालों की लगातार मेहनत, सिस्टम से जूझने का हौसला और कुछ कर गुजरने का जुनून।

राजनांदगांव जिले के मेटाटोडके, बुकमरका, मल्लैदा, काशीबाहरा, लक्ष्मणझिरिया जैसे कई गांव कभी नक्सल प्रभाव वाले बेहद दुर्गम इलाके माने जाते थे। यहां न तो सड़क थी, न बिजली, न पानी और न ही शिक्षा की कोई व्यवस्था। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं।

इस बदलाव की शुरुआत एक पत्रकार की जिद से हुई।
कमलेश सिमनकर (हाहाकारी) और पाताल भैरवी मंदिर के अध्यक्ष राजेश मारू ने 15 साल पहले इन गांवों की बदहाली को अपनी पत्रकारिता का केंद्र बनाया। लगातार शासन-प्रशासन से संवाद, समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों में रिपोर्टिंग कर इन गांवों की आवाज को ऊपर तक पहुंचाया।

पहले कदम — पानी
गांव के लोग झिरिया का गंदा पानी पीते थे। कमलेश और राजेश ने तत्कालीन कलेक्टर अशोक अग्रवाल से मिलकर यहां बोरवेल खुदवाए। दो बोरवेल से लोगों को पहली बार साफ पानी मिला।

दूसरा बड़ा बदलाव — सड़क
जहां सायकल से पहुंचना भी मुश्किल था, वहां प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत पक्की सड़क बनी। ये मुमकिन हुआ तत्कालीन कलेक्टर मुकेश बंसल से लगातार संपर्क और फॉलोअप के जरिए।

तीसरा मोर्चा — शिक्षा
गांवों में आंगनबाड़ी और स्कूल नहीं थे। बच्चों की शिक्षा ठप थी। लगातार खबरें प्रकाशित होने और अधिकारियों से संवाद के चलते अब यहां आंगनबाड़ी केंद्र और स्कूल चल रहे हैं। बच्चे पढ़ने जा रहे हैं, सपने देख रहे हैं।

सबसे बड़ी चुनौती — बिजली
गांव अंधेरे में डूबे रहते थे। शुरुआत में सोलर प्लेट लगाई गईं, लेकिन वो कारगर नहीं रहीं। फिर लगातार कोशिशों के बाद शासन-प्रशासन ने गंभीरता दिखाई और अब गांवों तक बिजली पहुंच चुकी है।

इन अफसरों ने निभाई बड़ी भूमिका
अविभाजित जिले के कलेक्टर रहे अशोक अग्रवाल, मुकेश बंसल, तारण प्रकाश सिन्हा, टी.के. वर्मा, भीम सिंह जैसे आईएएस अफसरों ने इन विकास कार्यों में सक्रिय भूमिका निभाई। शासन ने भी खुली छूट दी, जिससे फाइलें चलीं, बजट मिला और जमीन पर काम हुआ।

लेकिन अभी भी बाकी है सफर
अब भी कई गांव विकास की बाट जोह रहे हैं — आमाकोडो, नैनगुंडा, कोहकाटोला, गट्टेगहन, पीटेमेटा जैसे गांवों तक काम पहुंचना बाकी है। उम्मीद है सरकार और प्रशासन अब इन इलाकों की तरफ भी देखेगा।

एक पत्रकार और एक मंदिर समिति के अध्यक्ष की कोशिशों ने जंगल के अंधेरे गांवों में रौशनी ला दी।
यह बदलाव बताता है — अगर सोच नेक हो और इरादा मजबूत, तो सिस्टम भी बदलता है।